By: D.K Chaudhary
एलआईसी की मौजूदा हिस्सेदारी आईडीबीआई में करीब 11 फीसदी है, जिसे बढ़ाकर 51 फीसदी करने का फैसला उसने किया है। याद रखने की बात है कि मौजूदा कानूनों के मुताबिक, एलआईसी किसी कंपनी में 15 फीसदी से ज्यादा इक्विटी नहीं खरीद सकती है। फिर भी राष्ट्रीय बीमा नियामक निकाय इरडा की शुक्रवार को हैदराबाद में हुई बोर्ड बैठक में स्पेशल केस के रूप में इस सौदे को मंजूरी दी गई। आईडीबीआई बैंक की नजर से देखें तो यह बेलआउट निश्चित रूप से उसके लिए बहुत जरूरी था। बैंक को अगर प्रफेशनल ढंग से चलाया गया और फंसे कर्जों की वसूली का इंतजाम किया जा सका तो इस कदम से उसमें नई जान पड़ सकती है। बाजार ने इसका स्वागत किया है और सौदे को इरडा की मंजूरी मिलने के बाद आईडीबीआई के शेयर 10 फीसदी से ज्यादा चढ़ गए। मगर असल सवाल एलआईसी का है जो लाखों पॉलिसीधारकों के पैसों का इस्तेमाल सरकारी कुप्रबंधन से बर्बाद हुए एक बैंक का मालिकाना हासिल करने में कर रहा है। इस कदम का बचाव करते हुए दलील दी जा रही है कि इससे एलआईसी का बैंकिंग सेक्टर में प्रवेश हो रहा है और इसके जरिये वह अपने बिजनस को बहुविध रूप दे सकता है। लेकिन सवाल यह है कि अगर उसे बैंकिंग में आना ही था तो क्या जड़ से एक नया बैंक ही खड़ा करना उसके लिए बेहतर नहीं होता?
ध्यान रहे, एलआईसी के हालिया निवेश पैटर्न से इस फैसले का कोई मेल नहीं है। वह तो पिछले एक साल से विभिन्न पब्लिक सेक्टर बैंकों में अपनी हिस्सेदारी कम करने में जुटा था। साफ है कि परदे के पीछे से सरकार ने एक डूब रहे बैंक को एलआईसी के मत्थे मढ़ दिया है। एनपीए संकट ने देश के सारे ही सरकारी बैंकों को अपने लपेटे में ले रखा है। उनमें सबसे बदहाल बैंक को बचाने के लिए अलग क्षेत्र की एक अच्छी-भली कंपनी की साख को दांव पर लगाना दोनों के लिए खतरे का सामान जुटाने जैसा है। अच्छा होगा कि सौदे के बाद भी सरकार आईडीबीआई को संभालने की मुख्य जिम्मेदारी अपनी ही समझे।