पिछले कुछ सालों से दिल्ली की अजीबोगरीब स्थिति बन गई थी और चुनी हुई सरकार का तो कोई वजन ही नहीं महसूस हो रहा था। आए दिन राज्य सरकार और एलजी में टकराव की खबरें आती थीं। राज्य सरकार कहती थी कि उसे काम नहीं करने दिया जा रहा है, अधिकारी उसकी बात नहीं सुन रहे। दूसरी तरफ एलजी की बातों से लगता था जैसे दिल्ली सरकार बात-बात पर अपना दायरा लांघ रही है और सिर्फ राजनीतिक लाभ के लिए एलजी और उनके बहाने केंद्र पर काम न करने देने का आरोप मढ़ रही है। और तो और, खुद राज्य सरकार को ही कई बार आंदोलन करते देखा गया। यह सब देखकर लोगों के बीच यह सवाल भी पूछा जाने लगा था कि दिल्ली सरकार के पास जब कोई अधिकार ही नहीं हैं तो फिर केजरीवाल सरकार से पहले की दिल्ली सरकारों ने इतने सारे बड़े-बड़े काम कैसे कर लिए?
सच्चाई यही है कि दिल्ली राज्य के गठन के बाद से ही केंद्र और दिल्ली सरकार में कामकाजी सामंजस्य बना हुआ था, लेकिन पिछले तीन-चार वर्षों में यह बिल्कुल ही टूट गया। ऐसे में दिल्ली सरकार के अधिकारों को एक बार फिर से परिभाषित करना जरूरी हो गया था। वैसे भी दिल्ली का मामला इस अर्थ में असाधारण है कि यह न तो एक सामान्य राज्य है, न ही केंद्र शासित प्रदेश। इसकी स्थिति दोनों से अलग है। संविधान के अनुच्छेद 239 एए में साफ कहा गया है कि जमीन से जुड़े मामले, कानून-व्यवस्था और पुलिस को छोड़कर बाकी सभी विषयों पर कानून बनाने का अधिकार दिल्ली सरकार के पास है। उसी की रोशनी में अब सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि उप-राज्यपाल उसके फैसलों को रोक नहीं सकते। ज्यादा समस्या होने पर वे किसी खास फैसले को राष्ट्रपति के पास भेज सकते हैं, लेकिन सबको नहीं। कोर्ट का इशारा है कि एलजी मोटे तौर पर राज्यपाल जैसी सजावटी भूमिका ही निभाएं। उम्मीद है कि सभी पक्ष इस निर्णय का सम्मान करेंगे और दिल्ली में ऊपरी स्तर पर निरंतर जारी बेचैनी खत्म होगी।