ग्यारह साल बाद Editorial page 17th April 2018

By: D.K Chaudhary

हम अपनी अदालतों, न्याय प्रणाली और जांच एजेंसियों से यही उम्मीद करते हैं कि जब कोई मामला उनके पास पहंुचेगा, तो वह सुलझेगा। वहां दूध का दूध और पानी का पानी हो जाएगा। लेकिन दुर्भाग्य से कई जटिल मामले वहां सुझलने की बजाय और उलझ जाते हैं। यह समस्या तब और बड़ी हो जाती है, जब ये मामले आतंकवादी वारदात के हों। हैदराबाद की ऐतिहासिक मक्का मस्जिद में हुए विस्फोट का मामला 11 साल बाद एक ऐसे ही मोड़ पर आकर खड़ा हो गया है। विशेष अदालत ने इस मामले के सभी आरोपियों को बरी कर दिया है। अदालत का कहना है कि राष्ट्रीय जांच एजेंसी यानी एनआईए इन आरोपियों के खिलाफ पर्याप्त सुबूत देने में नाकाम रही है। 18 मई, 2007 को हुए इस विस्फोट में नौ लोग मारे गए थे और 58 घायल हुए थे। और अब 11 साल चली पूरी जांच कार्रवाई और अदालती कार्यवाही के बाद हम यह नहीं जानते कि दोषी कौन था? जब यह मामला एनआईए को सौंपा गया था, तब इसे लेकर हमने तरह-तरह की डींगें सुनी थीं। हर रोज हमें कहानियां सुनने को मिली थीं कि जांच एजेंसी ने किस तरह इस मामले को सुलझा लिया है। लेकिन अब पता चला है कि एनआईए द्वारा जुटाए गए सुबूत अदालत में ठहर ही नहीं सके। अब जो फैसला आया है, उसे राजनीतिक नजरिये से भी देखा जाएगा और यह आरोप भी आएगा कि सीबीआई की तरह एनआईए भी ‘पिंजरे का तोता’ है। अगर राजनीति के नजरिये से न देखें, तो इसमें एनआईए की अकुशलता भी दिखती है और असफलता भी। 

मक्का मस्जिद बम कांड देश में हुई कुछ उन आतंकवादी वारदात में था, जिन्हें ‘भगवा आतंकवाद’ कहकर प्रचारित किया गया था। अजमेर की दरगाह में हुआ विस्फोट, मालेगांव बम विस्फोट और समझौता एक्सप्रेस में हुआ विस्फोट कुछ ऐसे ही मामले थे। इन सभी आतंकी वारदात में बात सिर्फ राजनीतिक प्रचार की नहीं है, जांच की दिशा और आरोपियों के खिलाफ सुबूत जुटाने का काम भी इसी सोच के साथ हुआ था। अजमेर विस्फोट में भी अदालत ने कई आरोपियों बरी कर दिया था। इनमें वह स्वामी असीमानंद भी थे, जिन्हें विशेष अदालत ने सोमवार को मक्का मस्जिद विस्फोट मामले में भी बरी कर दिया है। हालांकि अजमेर दरगाह मामले में अदालत ने तीन आरोपियों को सजा सुनाई थी, जिनमें से एक सुनील जोशी का पहले ही निधन हो चुका था। लेकिन मक्का मस्जिद मामले में किसी भी आरोपी के खिलाफ एनआईए के आरोप ठहर नहीं सके। यह दुखद इसलिए है कि एनआईए के रूप में देश ने एक ऐसी जांच एजेंसी की कल्पना की थी, जो आतंकवाद के मामलों को देखने वाली अतिकुशल एजेंसी होगी, और सबसे बड़ी बात है कि वह किसी भी तरह की राजनीति से ऊपर होगी। एनआईए इन दोनों ही कसौटियों पर खरी उतरती नहीं दिख रही।

मुमकिन है कि जिन आरोपियों को अदालत ने बरी किया, वे सचमुच में गुनहगार न हों और किसी अन्य वजह से आरोपों में घिर गए हों। किसी अदालत से जब भी ऐसा फैसला आता है, तो यह सवाल हमेशा खड़ा होता है कि उस लंबे कालखंड का क्या होगा, जो उन्होंने जेल में या आरोपों की बदनामी झेलते हुए बिताए? क्या यह हो सकता है कि ऐसे फैसले के साथ ही अदालत उनके लिए क्षतिपूर्ति की भी घोषणा कर दे? अच्छा हो कि यह क्षतिपूर्ति जांच एजेंसी की जेब से ही हो।

 

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