By: D.K Chaudhary
जातिगत पंचायतों के कुछ भले काम भी गिनाए जा सकते हैं। जैसे, दहेज और कन्याभ्रूण हत्या के खिलाफ कुछ खापों ने मुखर पहल की है। इसी तरह कई जाति-पंचायतों ने शादी-विवाह में फिजूलखर्ची के खिलाफ रुख अख्तियार किया है। पर समस्या तब खड़ी होती है जब कोई पंचायत यह भूल जाती है कि कानून क्या कहता है और संविधान ने हरेक नागरिक को ऐसे मौलिक अधिकार दे रखे हैं जिन्हें कोई पंचायत तो क्या सरकार भी नहीं छीन सकती। एक जाति या गोत्र में शादी, प्रेम संबंध, अवैध संबंध, जमीनी विवाद जैसे मसलों पर कई बार खापों के फैसले सुन कर हैरत होती है कि हम किस जमाने में या किस दुनिया में रह रहे हैं। मसलन, मुंह काला करना, गांव में निर्वस्त्र घुमाना, पीट-पीट कर मार डालना, ऐसा आर्थिक दंड लगाना जिसे भर पाना ही संभव न हो, सामाजिक बहिष्कार, जाति बाहर कर देना, गांव छोड़ने का हुक्म दे देना, आदि। बागपत जिले की ऐसी ही एक घटना से भारत को दुनियाभर में शर्मसार होना पड़ा था, जिसमें पंचायत ने एक दलित परिवार के लड़के की सजा के रूप में उसकी दो बहनों को निर्वस्त्र कर घुमाने, उनका बलात्कार करने और फिर मुंह पर कालिख पोतने का फरमान सुना दिया था। इस लड़के पर एक महिला को ‘भगाने’ का आरोप था। इस मामले को एमनेस्टी इंटरनेशनल ने भी उठाया था। ब्रिटेन की संसद तक में यह मामला गूंजा था। ऐसे और भी उदाहरण मिल जाएंगे।
खापों के फरमानों पर बार-बार विवाद और सवाल उठने के बावजूद इनका कुछ नहीं बिगड़ा है। पारंपरिक तथा जातिगत कारणों के अलावा ये हमेशा इसलिए भी ताकतवर रही हैं कि इन्हें राजनीतिकों का पूरा संरक्षण रहता है। कोई भी नेता अपनी जाति की खाप के खिलाफ मुंह खोलने की हिम्मत नहीं दिखा पाता है, क्योंकि उसे वोट खिसकने का डर सताता है। इसीलिए ये प्रत्यक्ष रूप से या परदे के पीछे रह कर खाप के फैसलों को पूरा समर्थन दे रहे होते हैं, या कम से कम चुप्पी साध लेते हैं। राजनीतिक का काम केवल किसी तरह जीतना नहीं होता, बल्कि जन-मानस को बदलना भी होता है। अगर हमारे राजनीतिक यह धर्म निभा रहे होते, तो खाप पंचायतें कानून के खिलाफ जाने की जुर्रत न करतीं।