राजनीतिक दल किस तरह दिखावे की राजनीति करने और उसके जरिये लोगों की भावनाओं से खेलने में माहिर हो गए हैं, इसे एक बार फिर साबित किया कांग्रेसी नेताओं के उस कथित उपवास ने जो जातीय ¨हसा के विरोध और सांप्रदायिक सद्भाव के पक्ष में किया गया। अगर यह उपवास एक उपहास में तब्दील हो गया तो इसके लिए कांग्रेस के नेता अपने अतिरिक्त अन्य किसी को दोषी नहीं ठहरा सकते। कांग्रेसी नेता तथाकथित उपवास के जरिये अपने राजनीतिक मकसद को हासिल करने के प्रति कितने बेपरवाह थे, यह एक तो इससे साबित हुआ कि वे रेस्त्रं में छोले-भटूरे खाने के बाद राजघाट पहुंचे और दूसरे इससे कि राजनीतिक प्रहसन बन गए अनशन में योगदान देने सिख विरोधी दंगों में आरोपित नेता भी पहुंच गए। यह तो वही बात हुई कि भ्रष्टाचार के विरोध में कांग्रेस किसी धरना-प्रदर्शन का आयोजन करे तो उसमें कार्ति चिदंबरम भी भागीदार बनें। कांग्रेसी नेता अपने उपवास को लेकर बिल्कुल भी गंभीर नहीं थे और उनका मकसद केवल प्रचार पाना और दलितों को झूठी दिलासा देना था, यह इससे सिद्ध हुआ कि जब उनकी पोल खोलने वाली फोटो सामने आ गई तो इस बहाने की आड़ लेने में संकोच नहीं किया गया कि उपवास का समय तो साढ़े दस से साढ़े चार बजे तक था। अगर कोई चंद घंटे भी बिना कुछ खाए-पिए नहीं रख सकता तो फिर उसे उपवास का स्वांग करने से बाज आना चाहिए। क्या ऐसा ही कथित उपवास लाखों लोग रोजाना नहीं करते? सवाल यह भी है कि अगर कांग्रेसी नेता सचमुच चंद घंटे का उपवास कर लेते तो क्या उससे जातीय ¨हसा पर विराम लग जाता?

पेट-पूजा करने के बाद उपवास पर बैठना राजनीतिक छल-छद्म के अलावा और कुछ नहीं। दुर्भाग्य से राजनीति में ऐसे छल-छद्म बढ़ते जा रहे हैं और यही कारण है कि राजनीतिक दलों के सार्वजनिक आयोजन एक तमाशे की तरह होने लगे हैं। राजनीतिक दलों के धरना-प्रदर्शन से लेकर रैलियों तक में किराये की भीड़ अब आम बात है। राजनीतिक दलों के नेता और कार्यकर्ता कभी-कभी गिरफ्तारी देने भी निकलते हैं, लेकिन चंद मिनटों की सांकेतिक गिरफ्तारी देकर वे इस प्रचार में जुट जाते हैं कि उन्होंने जनहित के लिए बड़ा काम किया। चूंकि दिखावे की राजनीति बढ़ती चली जा रही है इसीलिए विधानमंडलों में व्यर्थ हंगामा करना अथवा बात-बात पर राज्यपाल या राष्ट्रपति को फालतू के ज्ञापन देना भी राजनीतिक दलों की आदत बन गई है। आम तौर पर राजनीतिक दल अपने आचार-व्यवहार से जो कुछ प्रदर्शित करते हैं उसके ही खिलाफ आचरण अधिक करते हैं। जब सभी दलों में खुद को दलित हितैषी दिखाने की होड़ मची है तब दलितों को उत्पीड़न एवं भेदभाव से मुक्ति नहीं मिल पा रही है तो इसीलिए कि हाथी की तरह राजनीतिक दलों के भी खाने के दांत और हैं और दिखाने के और। अगर कांग्रेस को सचमुच दलित हितों की चिंता होती तो उसके नेताओं ने एससी-एसटी एक्ट पर देश को गुमराह करने की कोशिश नहीं की होती। सच यह भी है कि यदि हमारे सभी दल दलित हितैषी होते, जैसा कि वे बताने की कोशिश कर रहे हैं तो एससी-एसटी एक्ट की तो जरूरत ही नहीं रहती।