खंडित अधिकार (Editorial Page)31st Dec

By: D.K Chaudhary

 भारत में करीब 12  साल पहले सूचना का अधिकार कानून लागू हुआ, तो स्वाभाविक ही इसे नागरिकों के सशक्तीकरण के तौर पर देखा गया। आरटीआइ यानी सूचना अधिकार अधिनियम ने पारदर्शिता और जवाबदेही सुनिश्चित करने के संघर्ष को जितना बल प्रदान किया है उतना शायद ही किसी अन्य विधायी या प्रशासनिक फैसले ने किया हो। अलबत्ता इस मुहिम को बहुत सारी बाधाओं का सामना करना पड़ता रहा है। गोपनीयता के ढर्रे पर दशकों से काम करते आ रहे प्रशासन तंत्र को इस कानून के चलते असुविधा महसूस होती है, शायद डर भी लगता है, और उसकी तरफ से सूचनाएं मुहैया कराने में बाधाएं खड़ी की जाती रही हैं। पर आरटीआइ को ताजा झटका एक अदालती फैसले से लगा है। मद्रास उच्च न्यायालय ने अपने एक फैसले में कहा है कि आरटीआइ के तहत सूचना मांगने पर आवेदक को उसका कारण या मकसद बताना होगा। अनेक कानूनविदों और तमाम आरटीआइ कार्यकर्ताओं ने इस पर हैरत भी जताई और निराशा भी। इससे पहले भी सूचना अधिकार अधिनियम से संबंधित कई विवाद उठे हैं। मसलन, सरकारी फाइलों पर की जाने वाली टिप्पणियां बताई जा सकती हैं या नहीं; सूचना आयुक्तों की नियुक्ति में सरकार की निर्णायक भूमिका क्यों है।

सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले पर भी खासा विवाद उठा था कि सूचना आयोगों में कम से कम आधे सदस्य ऐसे हों जो जज रह चुके हों। पर बाद में सर्वोच्च अदालत अपने इस फैसले पर पुनर्विचार को राजी हो गई और उसने इसे वापस भी ले लिया। यह शायद पहला मौका है जब एक उच्च न्यायालय ने ऐसा फैसला सुनाया है, जो संबंधित कानून के मद्देनजर विरोधाभासी जान पड़ता है। आरटीआइ की धारा 6 (2) कहती है कि सूचना के लिए आवेदन करने वाले व्यक्ति को इसके लिए कोई वजह नहीं बतानी होगी। यह प्रावधान यह सोच कर ही किया गया होगा कि अगर कारण बताने की शर्त रखी गई, तो सूचना का अधिकार कोई मौलिक अधिकार नहीं रहेगा। वजह पूछने का कोई अंत भी नहीं होगा। और इस तरह सूचनाधिकार कानून बेमतलब होकर रह जाएगा। सर्वोच्च न्यायालय के कई निर्णयों ने भी सूचनाधिकार को मूल अधिकार के रूप में परिभाषित किया है। विचित्र है कि मद्रास उच्च न्यायालय ने सूचनाधिकार के स्वरूप को नए सिरे से तय करने वाला फैसला तो सुना दिया है, पर अपने फैसले में धारा (2) का कोई जिक्र नहीं किया है। जिस मामले की सुनवाई करते हुए अदालत ने कारण बताने का नियम पेश किया है, वह एक प्रमुख मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट के खिलाफ शिकायत से जुड़ा था। केंद्रीय सूचना आयोग ने इस मामले में मद्रास उच्च न्यायालय के पंजीयन विभाग के जन सूचना अधिकारी को आवेदक को जानकारी मुहैया कराने का निर्देश दिया था।

आयोग के इस आदेश के खिलाफ संबंधित जन सूचना अधिकारी की अपील पर उच्च न्यायालय ने जहां शिकायत से जुड़ी सूचना उजागर न करने की छूट दे दी, वहीं सूचना-आवेदक के लिए मकसद बताने की ऐसी शर्त भी जोड़ दी, जो सूचना के अधिकार पर दूरगामी असर डालेगी। इस फैसले की नजीर देकर तमाम आवेदनों को धता बताया जा सकता है। सूचनाधिकार अधिनियम बना, तभी सरकार और संसद के ध्यान में यह बात थी कि कुछ प्रकार की सूचनाएं नहीं दी जा सकतीं, मसलन सेना और खुफिया एजेंसियों के कामकाज से संबंधित। इसलिए शुरू में ही आरटीआइ की कुछ मर्यादा तय की गई। मगर आवेदन के साथ कारण बताने का कोई प्रावधान नहीं किया गया, इसलिए कि एक मौलिक नागरिक अधिकार के साथ इस तरह की शर्त नहीं जोड़ी जा सकती। कानून में संशोधन संसद का काम है, अदालत का नहीं। मद्रास उच्च न्यायालय को अपने फैसले पर पुनर्विचार करना चाहिए, क्योंकि वह सूचनाधिकार अधिनियम से मेल नहीं खाता।

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