By: D.K Chaudhary
पंजाब नेशनल बैंक में हजारों करोड़ रुपए के घोटाले के बाद जिस तरह जान-बूझकर कर्ज न लौटाने वालों के साथ-साथ बैंकों से जुड़े धोखाधड़ी के मामले सामने आ रहे हैं, उससे यही प्रकट होता है कि बैंकों का प्रबंधन कुप्रबंधन का पर्याय बन चुका है। यह स्थिति केवल भ्रष्ट बैंक अफसरों और घोटालेबाजों के लिए ही हितकारी हो सकती है। इससे संतुष्ट नहीं हुआ जा सकता कि सरकार जान-बूझकर कर्ज न लौटाने वालों के खिलाफ सख्ती बरतने के साथ अन्य अनेक उपाय कर रही है, क्योंकि धोखाधड़ी रोकने और घोटालेबाज तत्वों को घेरने-पकड़ने से ज्यादा जरूरी ऐसी व्यवस्था का निर्माण है, जिससे घोटाले हो ही न सकें। बीते दिन रिजर्व बैंक के गर्वनर उर्जित पटेल ने जिस तरह यह कहा कि सरकारी बैंकों पर अंकुश लगाने के मामले में उनके हाथ बंधे हुए हैं, उससे तो यही रेखांकित हुआ कि वित्त मंत्रालय अनावश्यक ही रिजर्व बैंक को जवाबदेह ठहरा रहा है। उर्जित पटेल के अनुसार उनके पास पर्याप्त अधिकार नहीं हैं। वह न तो सरकारी बैंकों के चेयरमैन और निदेशक को हटा सकते हैं और न ही उनके लाइसेंस रद्द कर सकते हैं। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि बैैंकिंग नियमन संबंधी अधिनियम ने रिजर्व बैंक के अधिकार सीमित कर दिए हैं। आखिर ऐसे में वित्त मंत्रालय किस आधार पर पंजाब नेशनल बैंक में घोटाले अथवा बैैंकों के बढ़ते एनपीए के लिए उसे जवाबदेह ठहरा रहा है? नि:संदेह एक सवाल यह भी है कि सरकार जिन लोगों को बैंकों का चेयरमैन या निदेशक बनाती है, उन्हें जवाबदेही के दायरे में क्यों नहीं लाती? यह किसी से छिपा नहीं कि आम तौर पर इन पदों पर राजनीतिक नियुक्तियां होती हैं।
कई बार तो ऐसे लोग सरकारी बैंकों के चेयरमैन या निदेशक बन जाते हैं, जिन्हें बैैंकिंग तंत्र की सही समझ भी नहीं होती। इससे भी खराब बात यह है कि वे बैंकों के हितों की परवाह करने के बजाय राजनीतिक हित पूरे करने में लगे रहते हैैं। वे जवाबदेही से भी बचे रहते हैं। आश्चर्य नहीं कि इसी कारण विलफुल डिफॉल्टर भी बढ़ रहे हैं और बैंकों के फंसे कर्ज की राशि भी। क्या यह अजीब बात नहीं कि सरकार लोगों पर भरोसा करने की बात तो करती है, लेकिन रिजर्व बैंक सरीखी नियामक संस्था पर भरोसा नहीं कर पा रही है? आखिर वह रिजर्व बैंक को आवश्यक अधिकारों से लैस क्यों नहीं करना चाहती? नि:संदेह सरकार को नीतियां बनाने-बदलने का अधिकार है, लेकिन बैंकों के नियमन की पूरी जिम्मेदारी तो रिजर्व बैंक के पास ही होनी चाहिए। दोहरी व्यवस्था तो साझे की खेती हुई और सब जानते हैं कि इस तरह की खेती का क्या हश्र होता है? आखिर रिजर्व बैंक को पर्याप्त अधिकार दिए बिना उसे उसकी जिम्मेदारी याद दिलाने का क्या मतलब? इस सवाल का जवाब देने के साथ सरकार को यह भी बताना चाहिए कि देश में इतने अधिक सरकारी बैंक क्यों होने चाहिए? अगर वह राजनीतिक कारणों से उनका निजीकरण नहीं कर सकती तो फिर उनकी संख्या तो सीमित कर ही सकती है। बेहतर हो कि वह यह समझे कि एक आदर्श और भरोसेमंद व्यवस्था वही होती है, जिसमें घपले-घोटाले होने ही न दिए जाएं।