By: D.K Chaudhary
स्वाभाविक रूप से इन मामलों पर भारत ही नहीं, पूरी दुनिया की नजरें टिकी थीं। बावजूद इसके, इन तीनों मामलों में न केवल जांच की रफ्तार सुस्त रही बल्कि इसकी लाइन भी बदलती रही और जांच की एजेंसियां भी। मालेगांव ब्लास्ट में तो खुद सरकारी वकील एनआईए पर आरोपियों के खिलाफ जान-बूझकर ढीला रुख अपनाने का आरोप लगा चुकी हैं। बहरहाल, सारी आशंकाएं निर्मूल मान ली जातीं, बशर्ते मुकदमा अपनी तार्किक परिणति तक पहुंचता प्रतीत होता। मगर हम देख रहे हैं कि स्थानीय पुलिस, सीबीआई और एनआईए- इन तीनों एजेंसियों से गुजरते हुए 11 साल बाद मामला जब फैसले के मुकाम तक पहुंचा तो अदालत इसी नतीजे पर पहुंची कि उसे सबूत नहीं मुहैया कराए गए। यानी सीधा सवाल जांच एजेंसियों की गुणवत्ता पर है।
क्या जांच के दौरान उन्हें एक बार भी ऐसा नहीं लगा कि जिन्हें उन्होंने पकड़ा है, उनके खिलाफ पर्याप्त सबूत नहीं हैं, लिहाजा उन्हें इस संभावना पर भी काम करना चाहिए कि कहीं वास्तविक अपराधी उनकी पहुंच से दूर न जा रहे हों? अगर ऐसा था तो जांच की कोई और लाइन पकड़ने से उनको किसने रोका था? दूसरी संभावना यह हो सकती है कि एजेंसियों ने वास्तविक अपराधियों को ही पकड़ा था, लेकिन उनके खिलाफ ठोस सबूत ढूंढना उनके अजेंडे पर ही नहीं आ पाया। अगर ऐसा है तो यह कहीं ज्यादा गंभीर मामला है और इसके नुकसान इस देश को बाद में भी उठाने पड़ेंगे। इतने सारे निर्दोष लोगों की हत्याओं की सजा किसी को भी न मिले, यह खुद में इतना बड़ा कलंक है, जिससे मुक्त होने में भारत को लंबा वक्त लगेगा। काफी समय से भारत को एक ‘सॉफ्ट स्टेट’ (कमजोर या पिलपिला राज्य) कहा जाता रहा है, जिसका अर्थ यह है कि संगठित अपराधों से सख्ती के साथ निपटने, दोषियों को अंजाम तक पहुंचाने की कोई परंपरा हमारे यहां नहीं बन पाई है। अफसोस कि इन तीनों हृदयविदारक घटनाओं में हमारी जांच एजेंसियों की नाकामी हमारी इस तकलीफदेह छवि को और मजबूत बनाएगी।