केंद्र सरकार की कथनी और करनी में बड़ा अंतर (Editorial Page) 04th Jan 2018

 By: D.K Chaudhary

तीन तलाक यानी ‘तलाक-ए-बिद्दत’ पर कानून भाजपा सरकार के अहंकार और उसकी निरंकुश शैली का एक और उदाहरण है।

रणदीप सिंह सुरजेवाला, नई दिल्ली। केंद्र की भाजपा सरकार की मानें तो तीन तलाक यानी ‘तलाक-ए-बिद्दत’ पर कानून लाने का एकमात्र उद्देश्य मुस्लिम महिलाओं को न्याय दिलाना है। इस कानून से संबंधित विधेयक तीन तलाक को अवैध घोषित करने वाले सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले को दोहराकर परिभाषित करता है, लेकिन मुस्लिम महिलाओं और बच्चों को स्वावलंबी बनाने एवं सम्मानजनक तौर से जीवनयापन करने के मूलभूत मापदंडों पर खरा नहीं उतरता। सच्चाई यह है कि भाजपा सरकार की कथनी और करनी में हमेशा अंतर रहा है। यह कानून भी कोई अपवाद नहीं। कथित ‘ऐतिहासिक अन्याय’ को समाप्त करने के उद्देश्य से लाया गया विधेयक बंद दरवाजे के भीतर तैयार किया गया और इसे तैयार करने में कुछ चुनिंदा मंत्रियों एवं चहेते अधिकारियों के अलावा किसी महिला समूह या संगठन से कोई परामर्श नहीं लिया गया।

इस बारे में संसद में पूछे गए एक प्रश्न के जवाब में सरकार ने राय न लेने की पुष्टि भी की थी। यह सब इसके बावजूद हुआ कि भाजपा सरकार का प्रचार-प्रसार विभाग पूरे जोर-शोर से यह बात फैला रहा है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस मामले के प्रति बहुत संवेदनशील हैं। दरअसल यह विधेयक भाजपा सरकार के अहंकार और उसकी निरंकुश शैली का एक और उदाहरण है। यह ध्यान रहे कि इस सरकार द्वारा पेश किए जाने वाले 20 प्रतिशत से कम कानून ही राय मशविरे के लिए संसदीय समिति के पास भेजे गए हैं, जबकि संप्रग सरकार के समय 80 प्रतिशत कानून संसदीय समिति द्वारा जनता की राय लेने के बाद पेश किए जाते थे। तीन तलाक पर कानून बनाने के लिए विधेयक को जिस मनमाने तरीके से तैयार कर आनन-फानन में पेश किया गया वह पूर्ववर्ती संप्रग सरकार द्वारा कानून लाने से पूर्व अनिवार्य तौर से राय मशविरा करने वाली नीति का उल्लंघन करता है।

मुस्लिम महिलाओं और बच्चों के लिए घातक है कानून
मोदी सरकार के लगभग चार वर्षों के शासन में एक बात साफ है और वह यह कि कानून बनाने के मामले में उसका रवैया मनमानी भरा है। यदि हम कानून मंत्री द्वारा घोषित बड़े-बड़े उद्देश्यों पर नजर डालते हैं तो यह साफ हो जाता है कि यह कानून मुस्लिम महिलाओं को बराबरी का अधिकार दिलाने की दिशा में उठाया गया एक कदम है या फिर मात्र राजनीतिक फायदे के लिए पेश किया गया एक छद्म एवं निष्प्रभावी कानून? जिस तरह इस कानून का मसौदा तैयार किया गया है उससे मुस्लिम महिलाओं और बच्चों को कोई अधिकार या लाभ नहीं मिलने वाला। इस बात की भी कोई गारंटी नहीं कि इससे तत्काल तीन तलाक की निंदनीय प्रथा पर कोई निर्णायक रोक लगेगी।

झलकता है भाजपा का नौसिखियापन
इस मामले में कांग्रेस का पक्ष बिल्कुल साफ है कि सुप्रीम कोर्ट का फैसला ऐतिहासिक है और इसका पालन किया जाना चाहिए। कांग्रेस ने इससे संबंधित कानून बनाने के विचार का समर्थन भी किया। यद्यपि इस मसौदे के संसद में पेश किए जाने और इसके पारित होने के बीच एक हफ्ते में दो चीजें साफ हो गईं। एक तो भाजपा सरकार के नौसिखिएपन से एक ऐतिहासिक अवसर हाथ से निकल गया और दूसरा मात्र सात धाराओं वाला यह कानून एक निरर्थक प्रयास साबित होने जा रहा है। इस प्रस्तावित कानून में केवल दो प्रावधान हैं-पहला यह कि तत्काल तीन तलाक की घोषणा पर तीन साल के कारावास का प्रावधान और मुस्लिम महिलाओं के लिए गुजारा भत्ता। इन दो प्रावधानों के आधार पर भाजपा सरकार यह बयानबाजी कर रही है कि उन्होंने मुस्लिम महिलाओं को हमेशा के लिए न्याय दिला दिया, परंतु वास्तविक परिणाम इसके बिल्कुल विपरीत हैं।

गुजारे भत्ते पर कानून चुप
गुजारा भत्ता के मामले में कांग्रेस सरकार के रुख से सहमत होती, लेकिन कानून में न तो गुजारा भत्ते की परिभाषा दी गई और न ही यह बताया गया कि गुजारा भत्ता कितना होगा? बच्चों को तो गुजारा भत्ता में शामिल ही नहीं किया गया। कांग्रेस सरकार द्वारा बनाए गए मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकारों की सुरक्षा) कानून, 1986 के तहत मुस्लिम महिला को मेंटेनेंस यानी भरण-पोषण का कानूनी अधिकार पहले से ही है। तीन तलाक संबंधी कानून यह भी नहीं बताता कि गुजारा भत्ता भरण पोषण की राशि में शामिल है या उससे काट लिया जाएगा? जब यह मामला संसद में उठाया गया तो कानून मंत्री ने घोषणा की कि इसका निर्धारण कोर्ट करेगा? क्यों? क्या केवल एक पंक्ति की परिभाषा दे देने से महिलाओं की वर्षों की कानूनी लड़ाई आसान नहीं हो सकती थी? यदि हां तो सरकार ने बेरुखी क्यों दिखाई?

तीन तलाक साबित करने की जिम्मेदारी महिलाओं पर
संविधान का हर विशेषज्ञ इस बात को मानता है कि कोई भी कानूनी अधिकार उतना ही कारगर है, जितनी उसे लागू करने की प्रक्रिया। इस कानून में पति द्वारा दिए गए तीन तलाक को साबित करने की जिम्मेदारी मुस्लिम महिलाओं पर छोड़ दी गई है। इसका नतीजा यही होगा कि आम मुस्लिम महिला को लंबे समय तक मुकदमेबाजी का सामना करना पड़ेगा। कांग्रेस ने इस बात की सिफारिश की है कि यह दायित्व पति पर होना चाहिए कि वह स्वयं साबित करे कि उसके द्वारा एक झटके में तीन तलाक नहीं दिया गया, परंतु झूठी वाहवाही लूटने में व्यस्त भाजपा सरकार के कानों पर इस सकारात्मक सुझाव के बारे जूं तक नहीं रेंगी।

कांग्रेस का एक और सुझाव यह था कि अगर पति को जेल हो जाएगी तो फिर मुस्लिम महिला और बच्चों को गुजारा भत्ता एवं 1986 के कानून के मुताबिक भरण-पोषण की राशि कौन देगा? क्या जीवनयापन का खर्चा पति की संपत्ति से लिया जा सकता है? और जहां पति के पास न संपत्ति हो और न आय का कोई और साधन तो उस स्थिति में मुस्लिम महिला और उसके बच्चों के जीवनयापन का खर्च कौन वहन करेगा? ये सारे प्रश्न मुस्लिम महिलाओं और बच्चों के पक्ष में कांग्रेस पार्टी ने संसद में भाजपा सरकार से पूछे, परंतु जमीनी हकीकत से बेखबर सरकार ने इनका जवाब देने की जरूरत नहीं समझी। यह निरंकुशता नहीं तो और क्या है?

तीन तलाक पर बनने वाले कानून का प्रस्तावित विधेयक जिस भ्रामक तरीके से पेश किया गया वह कांग्रेस सरकार द्वारा 1986 में मुस्लिम महिलाओं के भरण-पोषण के लिए पारित किए गए कानून के विपरीत है। भाजपा द्वारा दशकों तक यह भ्रामक प्रचार किया गया है कि मुस्लिम महिलाओं को भरण-पोषण के अधिकार से वंचित कर दिया गया है, लेकिन हर दावे की तरह उसका यह दावा भी झूठा है। वर्ष 2001 में सुप्रीम कोर्ट की पांच न्यायाधीशों की खंडपीठ (डेनियल लातिफी बनाम भारतीय संघ) ने 1986 के कानून को सही माना था, क्योंकि यह इद्दत की अवधि के बाद भी ‘उचित और तर्कसंगत’ भरण पोषण सहित मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों की रक्षा करता है। भाजपा-आरएसएस खेमे में जब झूठे जश्न का माहौल ठंडा पड़ेगा तब सब जानेंगे कि तीन तलाक रोकने वाला कानून मुस्लिम महिलाओं के साथ न्याय की कसौटी पर तो खरा नहीं उतरा, परंतु राजनीतिक प्रचार-प्रसार के मिथ्या सियासी तरकश के तीरों की तरह उसका प्रयोग अवश्य किया गया।

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