By: D.K Chaudhary
कर्नाटक के मुख्यमंत्री बनने जा रहे जनता दल(एस) के नेता कुमारस्वामी का यह बयान कांग्रेस की मजबूरी को ही अधिक रेखांकित करता है कि वह पूरे पांच साल सरकार का नेतृत्व करेंगे। ऐसा लगता है कि कुमारस्वामी को यह स्पष्टीकरण इसलिए देना पड़ा, क्योंकि अतीत में कांग्रेस और जनता दल(एस) ने भाजपा को रोकने के लिए जब इसी तरह सरकार बनाई थी, तो वह 20 महीने भी नहीं चल पाई थी। इस बार भी पिछली बार की तरह दोनों दलों का गठबंधन महज भाजपा का रास्ता रोकने के लिए है, न कि साझा राजनीतिक मूल्यों-मर्यादाओं की रक्षा के लिए। दोनों दलों के बीच चुनाव प्रचार के दौरान और यहां तक कि आनन-फानन गठबंधन की घोषणा के बाद भी जैसी खींचतान देखने को मिली उससे यह नहीं लगता कि दोनों दलों का मेल-मिलाप स्थायी है और कुमारस्वामी की सरकार कर्नाटक के हितों की पूर्ति में सहायक हो सकेगी। इसके आसार इसलिए और भी कम हैं, क्योंकि एक तो दोनों दल एक-दूसरे के कटु आलोचक रहे हैं और दूसरे, दोनों की नीति व नीयत में बमुश्किल ही कोई साम्य दिखता है। जब चुनाव पूर्व गठबंधन सही तरह नहीं चल पाते, तब इसकी उम्मीद कैसे की जाए कि केवल सत्ता हासिल करने के लिए बने चुनाव बाद गठबंधन जनता की आकांक्षाओं को पूरा कर सकते हैं? देश में चुनाव बाद बनने वाले गठबंधनों का अनुभव बहुत अच्छा नहीं रहा है। ऐसे गठबंधन राजनीतिक अवसरवाद की उपज ही अधिक होते हैं। इसके अलावा यह भी किसी से छिपा नहीं कि वे सत्ता में आकर अपने संकीर्ण स्वार्थों को पूरा करने को ही सर्वोच्च प्राथमिकता देते हैं। दरअसल इसी कारण वे ज्यादा दिन तक नहीं चल पाते। कहना कठिन है कि कुमारस्वामी कितनी लंबी पारी खेलेंगे, लेकिन इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि पूर्व मुख्यमंत्री सिद्दारमैया जद(एस) से इसीलिए बाहर हुए थे, क्योंकि उनकी कुमारस्वामी से पट नहीं रही थी।
इसमें संदेह है कि सिद्दारमैया नए मुख्यमंत्री कुमारस्वामी को मनचाहे तरीके से सरकार चलाने की स्वतंत्रता प्रदान करेंगे। संदेह इसमें भी है कि भाजपा विरोध के नाम पर कांग्रेस नेतृत्व कर्नाटक में अपनी आकांक्षाओं को बिल्कुल किनारे कर देगा। जो भी हो, यदि कर्नाटक की नई सरकार ने राज्य की समस्याओं के समाधान को अपने शासन की प्राथमिकता में नहीं रखा तो विकसित माना जाने वाला यह राज्य कई नई समस्याओं से घिर सकता है। कर्नाटक की राजधानी बेंगलुरु सूचना एवं प्रौद्योगिकी के गढ़ के रूप में दुनिया भर में विख्यात है, लेकिन बीते कुछ सालों में यह शहर दुर्दशा से ही अधिक ग्रस्त हुआ है। यदि बेंगलुरु एक आधुनिक शहर के रूप में नहीं उभर पाता तो इसके दुष्परिणाम केवल कर्नाटक को ही नहीं, बल्कि देश को भी भुगतने पड़ सकते हैं। बेहतर होगा कि एक बार फिर गठबंधन का हिस्सा बने ये दोनों दल कर्नाटक के विकास का बेहतर खाका न केवल पेश करें, बल्कि उस पर अमल करके भी दिखाएं। यह ठीक नहीं कि सरकार गठन से पहले ही कुमारस्वामी कांग्रेस की मजबूरी का लाभ उठाने के फेर में दिख रहे हैं। यह तो वह रवैया है जो कलह और विग्रह को ही निमंत्रण देगा।