By: D.K Chaudhary
दिल्ली से सटे नोएडा के सेक्टर-123 में कूड़ा डालने की जगह को लेकर जारी विवाद ने कचरे के निपटारे की बड़ी समस्या की ओर देश का ध्यान खींचा है। इस ‘प्लांड सिटी’ की स्थापना के चार दशक गुजर जाने के बाद भी यहां कचरा डालने की कोई व्यवस्था नहीं हो पाई है और ऐसी हर कोई कोशिश किसी न किसी नए बवाल का कारण बन रही है। जाहिर है, यह सिर्फ नोएडा की समस्या नहीं है। बगल में गाजियाबाद का भी ठीक ऐसा ही हाल है, और खुद दिल्ली की दशा ही कौन सी बेहतर है! टाउन प्लानिंग के नाम पर हमारे यहां सिर्फ कुछ गुडी-गुडी बातें होती हैं। देखते-देखते विशाल आबादियों वाले शहर बस जाते हैं, लेकिन न तो उनके लिए पर्याप्त पानी का इंतजाम हो पाता है, न सीवर निकासी का, न ही ठोस कचरे के निपटान का। विकसित मुल्कों की तुलना में कचरा हमारे यहां कम निकलता है लेकिन हमारा वेस्ट मैनेजमेंट उनके मुकाबले बेहद लचर है। 2016 में तत्कालीन पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने संसद में बताया था कि भारत हर साल सवा छह करोड़ टन ठोस कचरा पैदा करता है। 30 लाख टन कचरे के साथ दिल्ली इस मामले में सबसे ऊपर है, फिर मुंबई (27 लाख टन) और चेन्नई (16 लाख टन) का नंबर आता है।
देश भर की नगरपालिकाएं और नगर निगम मिलकर सिर्फ चार करोड़ टन कूड़ा जमा कर पाते हैं। 2 करोड़ टन से भी ज्यादा कूड़ा ऐसे ही पड़ा रहता है, जिसका बड़ा हिस्सा बारिश के जरिए नालियों में चला जाता है। मुंबई में हाल तक यह सुविधा थी कि वहां कचरे को समुद्री क्षेत्र में डाला जाता था, जिस पर शहर फैलता जाता था। लेकिन अन्य महानगरों में जितनी लैंडफिल साइट्स की जरूरत है, उसकी आधी भी नहीं हैं। दिल्ली का उदाहरण लें तो 1975 में यहां 20 सैनिटरी लैंडफिल साइट्स विकसित की गईं थीं, जिनमें 15 बंद हो चुकी हैं और दो में काम नहीं हो रहा। गाजीपुर, भलस्वा और ओखला साइट्स अपनी क्षमता से दोगुना कचरा जमा कर चुकी हैं। शहर का मास्टर प्लान बनाते समय अक्सर डंपिंग ग्राउंड या लैंडफिल साइट बनाने पर ध्यान ही नहीं दिया जाता, फिर बिना किसी ठोस नजरिए के कोई भी जगह इनके लिए तय कर दी जाती है। लेकिन उनके बनने से पहले ही आसपास कॉलोनियां कट चुकी होती हैं, जहां रहने वाले अपने बगल में खड़े हो रहे कूड़े के पहाड़ का विरोध शुरू कर देते हैं। इसे देखते हुए कूड़ा डालने की जगह वहां से हटाने की घोषणा कर दी जाती है, जैसा अभी नोएडा में किया गया। लेकिन कहीं न कहीं तो ऐसी साइट बनानी ही होगी, और वह कहां बनेगी? हर जगह उसका विरोध ही होता है और उसका बनना टलता जाता है। एक बात तय है कि ऐसा ज्यादा दिन नहीं चलने वाला, क्योंकि शहरों की पीठ अब दीवार से जा लगी है।