By: D.K Chaudhary
उपचुनाव, खासकर उत्तर प्रदेश के गोरखपुर और फूलपुर के नतीजों को महज जीत-हार की खुशी और गम से आगे जाकर देखने की जरूरत है। ये और बिहार के अररिया का नतीजा भविष्य की राजनीति के नए संकेतक हैं। गोरखपुर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की पारंपरिक सीट है और यहां से वह हमेशा बहुत बड़े अंतर से जीतते रहे हैं। यह सीट योगी के इस्तीफे, तो फूलपुर सीट उपमुख्यमंत्री केशव मौर्य के इस्तीफे से रिक्त हुई थी। दोनों ही सीटों पर भाजपा की हार से ज्यादा सपा की इतने ज्यादा मतों से जीत नए अर्थ दे रही है। इसने 1992 में मुलायम-कांशीराम के मिलन से भाजपा की हार वाले दौर की याद दिला दी है। हालांकि वह गठजोड़ बहुत लंबा तो नहीं ही चला, बल्कि खासी तल्खी पर आकर टूटा था। गोरखपुर और फूलपुर के इन नतीजों के पीछे भी अखिलेश-मायावती गठजोड़ है, तो इसे एक नई और दूरगामी राजनीति की शुरुआत माना जाना चाहिए। यानी इसे अगर एक बार फिर यूपी से शुरू होने वाली राजनीति की नई दिशा के प्रस्थानबिंदु के रूप में देखा जा सकता है, तो दूसरी तरफ बिहार के नतीजे बताते हैं कि राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद भले ही जेल में हों, लेकिन उन्हें राजनीतिक रूप से अभी पूरी तरह खारिज नहीं किया जा सकता। अररिया और जहानाबाद में राजद की शानदार जीत को तेजस्वी यादव की नई भूमिका में उदय के रूप में भी देखे जाने की जरूरत है।
इन नतीजों ने एक काम और किया है। जिस 2019 की खूब-खूब चर्चा और इंतजार हो रहा है, उस इंतजार को अब खासा रोचक बना दिया है। तय है कि अगले चुनाव तक का समय राजनीतिक दलों की व्यस्तताओं, नेताओं के नए गुणा-गणित और जनता के अपनी उंगलियों पर भविष्य की गणना करने के नए अवसर दे गया है। इसने याद दिलाया है कि राजनीति में हवाएं हमेशा एक जैसी नहीं बहती हैं। यहां हवाएं अपना मौसम खुद तय करती हैं। इसीलिए कभी इस ओर रुख करती हैं, कभी उस ओर रुख करती हैं। यह भी कि इन हवाओं का रुख राजनेता और दल नहीं, जनता ही तय किया करती है। हां, एक बात जो नहीं भूलने की है, वह यह कि बदली हुई हवाओं ने अगर विपक्ष को उम्मीद भरी राहत दी है, तो उसकी चुनौतियां भी खासी बढ़ा दी हैं। इसने भाजपा को भी सतर्क होने, थोड़ा ठहरकर सोचने-समझने और दूसरों की सुनने का कारण दिया है। सबसे पहले कर्नाटक, फिर राजस्थान और मध्य प्रदेश के चुनाव नई चुनौती बनकर सामने जो खड़े हैं।