उत्पीड़न और गिरफ्तारी  (Editorial page) 23rd March 2018 

By: D.K Chaudhary
सुप्रीम कोर्ट ने एससी/एसटी (प्रिवेंशन ऑफ अट्रॉसिटीज) एक्ट के बड़े पैमाने पर हो रहे दुरुपयोग को रोकने के लिए इसके साथ कई नए प्रावधान जोड़े हैं। अब इस कानून के तहत दर्ज किए गए मामलों में अग्रिम जमानत मिल सकेगी। ऐसे मामलों में शिकायतें आने पर अब अपने आप गिरफ्तारी नहीं होगी। संबंधित इलाके का डीएसपी शिकायत की प्राथमिक जांच करेगा पर शिकायत सही पाई जाने के बाद भी गिरफ्तारी अपवाद स्वरूप ही हो पाएगी। 
शिकायत अगर किसी पब्लिक सर्वेंट के खिलाफ हो तो गिरफ्तारी उसे नियुक्त करने वाले अधिकारी की इजाजत के बाद ही हो सकेगी। अन्य मामलों में गिरफ्तारी के लिए सीनियर एसपी की इजाजत जरूरी होगी। सच है कि देश में किसी कानून के बड़े पैमाने पर दुरुपयोग की शिकायतें मिल रही हों तो उसकी सीमाओं पर विचार करना ही होगा। इस लिहाज से सुप्रीम कोर्ट की इस पहल का औचित्य बनता है, लेकिन असल सवाल यह है कि दलितों-आदिवासियों की सुरक्षा को लेकर संसद को ऐसा कानून बनाने की जरूरत ही क्यों महसूस हुई, जिसमें सिर्फ शिकायत के आधार पर किसी को गिरफ्तार कर लिया जाए? इसकी जरूरत समाज में युगों से चली आ रही उस दबंग जातिवादी सोच के चलते बनी थी, जो देश की सरकारी मशीनरी में भी व्याप्त है और जिसका खामियाजा समाज का कमजोर तबका ही भुगतता आ रहा था। यह तबका इतना लाचार था (और आज भी है) कि इसके लिए शिकायत लेकर पुलिस स्टेशन पहुंचना ही बहुत बड़ी बात थी। उसकी शिकायत पर कार्रवाई हो जाए, यह लगभग असंभव माना जाता था। इस कानून ने समाज के इस मजबूर हिस्से के हाथों में ऐसी ताकत दी जिससे उसका मनोबल बढ़े और समर्थ तबके भी उसे नितांत असहाय न समझें। इस कानून से ये दोनों मकसद एक हद तक पूरे हुए, लेकिन जब-तब इसका दुरुपयोग भी हुआ। 

अच्छा ही है कि सुप्रीम कोर्ट ने दुरुपयोग को रोकने की पहल की, लेकिन उसकी इस पहल से वंचित तबके का यह सुरक्षा उपक्रम भी उससे छिन गया है। ताजा प्रावधानों के बाद दलित उत्पीड़न से जुड़ी शिकायतों पर कार्रवाई या संबंधित व्यक्ति की गिरफ्तारी लगभग असंभव हो गई है। ऐसे में गिरफ्तारी की संभावना को नगण्य बनाने से अच्छा यह होता कि शिकायत की जल्द जांच करके निर्दोष व्यक्तियों की तत्काल रिहाई और निराधार शिकायतकर्ता को दंडित करने के उपाय किए जाते।

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