By: D.K Chaudhary
इसरो की दूसरी सफलता यह मानी जाती है कि इसने उपग्रह लॉन्च करने की सबसे सस्ती तकनीक विकसित की है। इसके बावजूद भी उसकी साख कभी कम नहीं हुई। शुरू में यह माना जाता था कि इसरो की सफलताओं के चलते भारत विकासशील देशों के उपग्रह लॉन्च करने का केंद्र बन जाएगा, यानी जिन देशों या उनकी कंपनियों को अपने उपग्रह की जरूरत है, लेकिन वे ज्यादा खर्च करने की स्थिति में नहीं, उनके लिए इसरो सबसे अच्छा जरिया हो सकता है। लेकिन अंत में जो तस्वीर बनी, वह इससे कहीं ज्यादा दिलचस्प है। शुक्रवार को पीएसएलवी रॉकेट ने जो उपग्रह अंतरिक्ष में स्थापित किए, उनमें अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस और कनाडा जैसे विकसित देशों के व्यावसायिक उपग्रह भी शामिल हैं। लेकिन इसरो की सफलता की कहानी सिर्फ उसकी इन उपलब्धियों से ही नहीं समझी जा सकती। इसके लिए हमें उन परिस्थितियों और संघर्षों को भी समझना होगा, जिनके बीच इसने यह क्षमता हासिल की है। इसरो की नींव उस दौर में पड़ी थी, जब दुनिया में शीतयुद्ध चल रहा था और भारत को तरह-तरह की तकनीकी पाबंदियों का सामना करना पड़ रहा था। आसानी से मिलने वाली तकनीक भी भारत के लिए उपलब्ध नहीं थी। इसरो ने उन पाबंदियों के बीच से अपने लक्ष्य हासिल करने का हुनर सीखा। तब खुद को अपने पांवों पर खड़ा किया, जब तकनीक का अर्थ ही होता था विदेशी, और अब वह दुनिया की बड़ी-बड़ी स्पेस एजेंसियों को कड़ी टक्कर दे रहा है।
ठीक यहीं पर यह बात जरूर कचोटती है, जो इसरो ने जो कर दिखाया है, वह देश की कोई दूसरी एजेंसी उस तरह से क्यों नहीं कर सकी? देश में वैज्ञानिक शोध की बहुत सारी संस्थाएं हैं, कई ने महत्वपूर्ण काम भी किए हैं, कुछ सफलताएं भी मिली हैं, लेकिन कोई भी वैसी व्यावसायिक सफलता नहीं हासिल कर सकी, जैसी इसरो को मिली है। और तो और, तकनीकी पाबंदियों के दौर में निजी क्षेत्र की किसी कंपनी के साथ इसरो जैसे संघर्ष की कहानी नहीं जुड़ सकी। कहा जाता है कि सफलता सिर्फ एक परिणाम नहीं होती, यह एक आदत भी होती है। इसरो ने यह आदत कैसे हासिल की और बाकी एजेंसियां और कंपनियां इससे क्यों चूक गईं, यह सचमुच शोध का विषय है। इस समय जब इसरो चंद्र्रयान-2 मिशन की तैयारी कर रहा है, तो उसकी सफलता पर किसी को कोई संदेह नहीं।