इफ्तार की सियासत Editorial page 17th June 2018

By: D.K Chaudhary

देश में एक बार फिर इफ्तार की राजनीति जोर पकड़ती दिखी। बुधवार को दिल्ली में कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी की इफ्तार पार्टी खासी चर्चा में रही। हालांकि उसी दिन बीजेपी नेता मुख्तार अब्बास नकवी ने भी ‘तीन तलाक से पीड़ित महिलाओं’के लिए इफ्तार पार्टी आयोजित की और उसे भी अच्छी कवरेज मिली। वैसे तो इफ्तार पार्टियों के जरिए राजनीतिक संदेश देने की परिपाटी देश में नई नहीं है, लेकिन हाल के वर्षों में इस ट्रेंड में थोड़ा बदलाव दिखने लगा था। कथित हिंदुत्ववादी राजनीति वाले इस दौर में इफ्तार को लेकर सरकारी दायरे में अतिरिक्त सतर्कता दिखनी लाजिमी है, लेकिन विपक्षी कांग्रेस भी इसे लेकर असहज महसूस करने लगी थी। 

2014 के लोकसभा चुनाव नतीजों की समीक्षा के लिए गठित एके एंटनी समिति ने साफ कहा था कि पार्टी की हार की एक बड़ी वजह उसकी छवि मुस्लिम समर्थक पार्टी जैसी बन जाना भी थी। कुछ समय पहले खुद सोनिया गांधी ने रोष भरे स्वर में कहा था कि ‘हमारी पार्टी के बारे में यह दुष्प्रचार किया जाता है कि यह मुस्लिमों की पार्टी है।’ ऐसे माहौल में कांग्रेस का इफ्तार पार्टी आयोजित करने में दिलचस्पी न लेना स्वाभाविक था। 2016 में बाकायदा घोषणा की गई कि इस बार कांग्रेस अध्यक्ष की ओर से इफ्तार पार्टी नहीं दी जाएगी। मगर दो वर्षों के अंतराल के बाद आम चुनाव से जुड़ी चर्चाओं के बीच नए पार्टी अध्यक्ष राहुल गांधी ने भव्य इफ्तार पार्टी आयोजित करने का फैसला किया तो इस बारे में पार्टी के भीतर विचार-विमर्श हुआ ही होगा। 

यह इफ्तार पार्टी इस कयासबाजी को लेकर भी चर्चा में रही कि इसमें पूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी को आमंत्रित किया जाएगा या नहीं। बाद में इसमें समाजवादी पार्टी और बीएसपी के बड़े नेताओं की गैरमौजूदगी पर भी खूब बातें हुईं। चुनावी साल में किसी भी राजनीतिक दल की ओर से किया गया कोई भी बड़ा आयोजन ऐसे सवालों से बच नहीं सकता। मगर हकीकत यह भी है कि चुनावी मोर्चेबंदी के स्वरूप की कुछ झलक भले ही इन आयोजनों में मिल जाए, पर उसकी शक्ल यहां तय नहीं हो सकती। राजनीतिक इफ्तार पार्टियों की अपनी अहमियत जरूर है, लेकिन इनका मकसद विपक्ष से ज्यादा जनता में संदेश भेजने का है। 

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