By: D.K Chaudhary
इच्छामृत्यु पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने उस बहस पर विराम लगा दिया है, जिसकी शुरुआत 1986 में कार दुर्घटना के बाद सिजोफ्रेनिया और मानसिक रोगों का शिकार हुए कांस्टेबल मारुति श्रीपति दुबल की खुद को जलाकर मारने की कोशिश और फिर 2009 में 42 साल से अस्पताल में अचेत पड़ी अरुणा शानबाग के लिए शांतिपूर्ण मृत्यु की विनती वाली याचिका से हुई थी। याचिका के साथ देश में इच्छामृत्यु पर नई बहस तो शुरू हुई ही, जाने-अनजाने अरुणा शानबाग यूथेनेशिया या इच्छामृत्यु को वैधानिक आधार देने की मुहिम और बहस का चेहरा बन गईं। यही कारण है कि यह फैसला बार-बार अरुणा शानबाग की याद दिला रहा है। याचिका और फैसले के पीछे भावना यही है कि क्या उस इंसान को, जिसकी जीने की सारी उम्मीदें खत्म हो चुकी हों, और जो कोमा जैसे हालात में मृत्यु शैया पर हो, उसे इच्छा मृत्यु मिलनी चाहिए या नहीं। सुप्रीम कोर्ट ने अरुणा के मामले में दायर याचिका को खारिज करते हुए टिप्पणी में ‘पैसिव यूथेनेशिया’ यानी ‘निष्क्रिय इच्छामृत्यु’ जैसे शब्द जोड़कर नई बहस को जमीन दी थी, और माना था कि संभवत: भविष्य में इस पर विचार हो और इच्छामृत्यु चाहने वाले इंसान, उसकी मेडिकल जांच और पारिवारिक सहमति के साथ किसी फैसले की राह बन सके। ताजा फैसला इसी का विस्तार है।
सिरा तो उसी वक्त मिल गया था, जब कोर्ट ने अरुणा शानबाग के मामले में ‘राइट टु क्वालिटी लाइफ’ यानी सम्मानजनक जीवन की तरह की सम्मानजनक मौत की बात मानी थी। हालांकि स्वाभाविक तौर पर इसके साथ तमाम सवाल जुड़े थे, जिन पर आज बस किसी हद तक राह साफ हुई है। कोर्ट ने इच्छामृत्यु पर सहमति देते हुए कुछ शर्तें लगाई हैं। ‘लिविंग विल’ की बात स्वीकार करते हुए उसने व्यवस्था दी है कि ऐसी विल होने के बावजूद ऐसे मामलों में हाईकोर्ट की निगरानी में बने मेडिकल बोर्ड के साथ ही परिवार की मंजूरी जरूरी होगी और यह सब जिला मजिस्ट्रेट की देखरेख में ही होगा। कानून बनने तक कोर्ट की गाइडलाइन ही मान्य रहेंगी।
कुछ और सवाल भी हैं, जिनके जवाब तलाशने होंगे। ‘लिविंग विल’ अपने आप में बड़ा सवाल है कि ऐसी कोई वसीयत, जिसमें अपनी ही मृत्यु की बात हो, कहां और किस तरह रखी जाएगी? अंगदान या देहदान की वसीयत या इच्छा तो लिखकर परिवार को दे दी जाती है या ऐसे दान का फैसला मृत्युपरांत परिवार भी कर सकता है, लेकिन अपनी ही मृत्यु की वसीयत आसान मामला नहीं। क्या यह सामान्य वसीयत जैसा ही कुछ होगा और ऐसी किसी वसीयत की वैधता या प्रामाणिकता पर सवाल नहीं उठेंगे? ऐसे मामलों में पूरे परिवार की सहमति जरूरी होगी, तो उस परिवार के दायरे में कौन-कौन शामिल होंगे? जरा सा भी विवाद ऐसे हालात उत्पन्न करेगा, जो फैसले की प्रक्रिया को अनिश्चित विस्तार दे सकता है। अगर कोई इंसान किसी भी हाल में उसे इच्छामृत्यु न दिए जाने की वसीयत कर जाए, तो परिवार व मेडिकल बोर्ड की राय अलग रहने के बावजूद क्या होगा? यह सम्मान से जीने के अधिकार की तरह ही सम्मान से मरने के अधिकार यानी अपनी देह पर खुद के हक का मामला भी है, तो फैसले में शायद संबद्ध इंसान की वसीयत ही सबसे अहम मानी जाए। जो भी हो, सर्वोच्च अदालत का यह युगांतरकारी और जरूरी फैसला है। जरूरत बस इसके बेजा इस्तेमाल को रोकने की है।