By: D.K Chaudhary
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के नागपुर मुख्यालय में पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी का जाना और संघ शिक्षा वर्ग के स्वयं सेवकों को संबोधित करना शिष्टाचार और संवाद के बीच की वह अवस्था है जिसकी हर व्यक्ति अपने-अपने ढंग से व्याख्या कर सकता है। फिर भी इस आमंत्रण और व्याख्यान की इस बात के लिए तारीफ करनी होगी कि इससे संवाद का एक सिलसिला शुरू हुआ है और उन लोगों की आशंकाएं निराधार साबित हुई हैं जो उनके नागपुर जाने पर हायतौबा मचाए हुए थे। उल्टे देश ने इस संवाद का स्वागत ही किया है।
देश में अगर एक-दूसरे की बातें सुनने और उसके अच्छे तत्व ग्रहण करने का सिलसिला चल निकले और संवाद की मर्यादा स्थापित हो तो इससे गलतफहमी और तनाव स्वतः ही कम होगा और यही लोकतंत्र है। इसमें गड़बड़ी वे लोग कर रहे हैं, जो यह दावा कर रहे हैं कि देखो हम जीत गए जबकि जीतने की जरूरत भारत और उसके लोकतंत्र की है। पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने वहां पर वही कहा, जो उन्होंने कांग्रेस पार्टी से लंबे संबंध के चलते और अपने अध्ययन मनन से उपजे उदार विचारों से ग्रहण किया था। उस सोच से मतभेद होते हुए भी एकरूपता के विचार वाले संघ ने उन्हें सुनकर शालीनता का परिचय दिया।
प्रणब दा ने संवैधानिक देशभक्ति, बहुलवाद और सहिष्णुता जैसे मूल्यों को बचाने का आह्वान किया और यह भी कहा कि कट्टरता, धर्म, क्षेत्र, नफरत और असहिष्णुता के आधार पर राष्ट्रवाद को परिभाषित करने की कोशिश हमारी राष्ट्रीय पहचान खत्म कर देगी। उन्होंने बहुलता के विचार के लिए तिलक और गांधी के नेतृत्व में चलाए गए स्वाधीनता संघर्ष को श्रेय दिया और जवाहर लाल नेहरू का कई बार उल्लेख किया। उनके व्याख्यान से पहले राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सरसंघचालक ने अपना भाषण दिया था ताकि यह स्पष्ट हो जाए कि संघ विविधता और वैचारिक भिन्नता के विरुद्ध नहीं है।
संघ हिंदुत्व की विचारधारा को इस राष्ट्र की केंद्रीय विचारधारा बनाने का लक्ष्य रखता है। इसी विचार के तहत संघ उन सभी धर्म के लोगों के हिंदू होने का दावा करता है जो भारत में रहते हैं। अब देखना है कि भाजपा के चार साल के शासन में संघ से असहमत राजनीतिक और सामाजिक समूहों ने जो असहजता महसूस की है, क्या संघ उसे दूर करने की कोशिश करेगा?