इसके मूल में यह दुविधा काम कर रही है कि उसका जोर गैर बीजेपी, गैर कांग्रेस थर्ड फ्रंट गठित करने पर होना चाहिए, या कांग्रेस को साथ लेकर एक महागठबंधन बनाने पर। अभी ज्यादातर विपक्षी दल कांग्रेस से दूरी बनाकर चलने को अपने लिए बेहतर मान रहे हैं। रविवार को हुई नीति आयोग की बैठक से एक दिन पहले दिल्ली पहुंचे चंद्रबाबू नायडू, ममता बनर्जी और एचडी कुमारस्वामी ने केजरीवाल के लिए समर्थन की घोषणा करते हुए उनसे मुलाकात की कोशिश की। वे उनके परिवार से मिले लेकिन राहुल गांधी से मिलना उन्होंने जरूरी नहीं समझा, लेकिन कांग्रेस का स्टैंड केजरीवाल के धरने को ड्रामा बताने का ही है। कुछ और मसलों पर भी क्षेत्रीय दलों और कांग्रेस में मतभेद है। याद करें, कर्नाटक में एचडी कुमारस्वामी का शपथ ग्रहण समारोह। उसमें तमाम विपक्षी दलों के नेता शामिल हुए। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी वहां बीएसपी सुप्रीमो मायावती से जिस गर्मजोशी से मिलीं, वह चर्चा का विषय बना, लेकिन ये नेता राहुल गांधी की इफ्तार पार्टी से नदारद रहे जबकि इसे विपक्षी एकता दिखाने के एक बड़े मौके की तरह देखा जा रहा था। समाजवादी पार्टी ने तो साफ संकेत दे दिया है कि अगले आम चुनाव में वह कांग्रेस से गठबंधन नहीं करेगी। वह बीएसपी के साथ चलना चाहती है लेकिन इस बात से डरी हुई है कि कहीं बीएसपी और कांग्रेस अलग से कोई गठबंधन न कर लें।
इन दोनों पार्टियों का साथ आना मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस द्वारा बीएसपी के लिए छोड़ी जाने वाली सीटों पर निर्भर करता है। इसकी पेचीदगी फिलहाल मध्य प्रदेश में कांग्रेस और बीएसपी के नेताओं के छिटपुट बयानों में जाहिर हो रही है। दरअसल ज्यादातर क्षेत्रीय पार्टियां कांग्रेस से अलग होकर या उससे लड़ती हुई ही खड़ी हुई हैं, लिहाजा वे नहीं चाहतीं कि कांग्रेस आगे बढ़े। कांग्रेस मजबूत होगी तो वे कमजोर होंगी। लिहाजा अभी वे ऐसा माहौल बनाना चाहती हैं कि कांग्रेस मजबूरी में उनका समर्थन करती रहे और नेतृत्व करने की बजाय हाशिए पर रहे। उन्हें लगता है कि कांग्रेस के साथ खड़े होने पर उनका परंपरागत वोट बैंक छिटक सकता है। उनके नेताओं को राहुल गांधी की नेतृत्व क्षमता पर भी संदेह है, लेकिन कांग्रेस अगर इस साल होने वाले विधानसभा चुनावों में मजबूत होकर उभरी तो क्षेत्रीय दल उसके साथ आने को मजबूर होंगे।