By: D.K Chaudhary
राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के आस-पास या यूं कहें कि उत्तर भारत के एक बड़े हिस्से में इन दिनों जो आफत आई है, वह अलग तरह की है। इस पूरे इलाके को घनी धूल ने अपने आगोश में ले लिया है। हर जगह धूल ही धूल है, लोगों के लिए सांस लेना दूभर हो चुका है। दमा व ब्रोंकाइटिस से पीड़ि़त लोगों को तो परेशानी हो ही रही है, बाकी के लिए भी हालात कोई बहुत अच्छे नहीं हैं। अगर आंकड़ों के हिसाब से देखें, तो प्रदूषण के मामले में तो यह इलाका हमेशा ही खतरनाक स्थिति में होता है, लेकिन इन दिनों तो वह सारी हदें पार कर गया है। प्रदूषण के पिछले कई रिकॉर्ड इन दो-तीन दिनों में ही टूट गए हैं। इसके साथ ही भीषण गरमी तो है ही। सुबह-शाम गरमी से जो मामूली सी राहत होती थी, धूल की मोटी परत के कारण वह भी नदारद हो चुकी है। यह वही इलाका है, जहां सर्दी के मौसम में जब कोहरा छाता है, तो वह धूल और धुएं के साथ मिलकर स्मॉग बन जाता है और लोगों को खासा परेशान करता है। तब भी परेशानियां ऐसी ही होती हैं। लेकिन इस बार की परेशानी शायद ज्यादा बड़ी है और मौसम विभाग कह रहा है कि अभी दो-तीन दिन इससे राहत भी नहीं मिलने वाली।
लोग भी जानते हैं कि राहत की उम्मीद वे मौसम के चक्र से या प्रकृति से ही कर सकते हैं। जब भी हम ऐसे आपातकाल में फंसते हैं, तो हमारे पास कुदरत से उम्मीद बांधने के अलावा कुछ नहीं बचता। पूरा सरकारी तंत्र, सारे वैज्ञानिक शोध, प्रदूषण से बचाने की पर्यावरणवादियों की लंबी बहसें, सब बेमतलब नजर आने लगते हैं। दो साल पहले सर्दियों में दिल्ली सरकार ने एक प्रयोग किया था कि जब प्रदूषण बढ़े, तो गाड़ियां सड़कों पर आधी ही निकलें, लेकिन इससे भी कुछ नहीं हुआ। और अभी भी हाथ पर हाथ धरकर बैठने के अलावा हमारे पास कोई और चारा नहीं है। विशेषज्ञ ये चेतावनी जरूर दे रहे हैं कि जब तक जरूरी न हो, लोग घरों से न निकलें। हालांकि यह आसान नहीं है, हमारी अर्थव्यवस्था से दिनचर्या तक बहुत कुछ ऐसा है, जो लोग घरों से न निकलें, तो रुक जाता है। बाहर के माहौल से घर बेहतर हो सकते हैं, लेकिन पूरी तरह सुरक्षित हैं, ऐसा नहीं कहा जा सकता। भारत में कोशिश आमतौर पर घरों को हवादार बनाने की होती है, इसलिए धूल या धुआं जब बाहर होता है, तो आसानी से घरों में भी प्रवेश पा जाता है।
खबरों में बताया जा रहा है कि यह धूल राजस्थान से उठकर आस-पास के क्षेत्रों तक फैली है, जबकि कुछ दूसरी खबरों का कहना है कि यह वबंडर ईरान और अफगानिस्तान की तरफ से आया है। वातावरण में फैली धूल अब जहां से भी आई हो, यह तो बताती ही है कि दुनिया के गड़बड़ाए मौसम-चक्र ने हम सबको परेशान करना शुरू कर दिया है। ऐसा नहीं है कि धूल के ये गुबार पहली बार छाए हों, लेकिन इस बार यह लग रहा है कि मानसून पूर्व की बारिश में पिछले कुछ साल से लगातार जो कमी आ रही है, उससे खराब मौसम के ये दौर लंबे खिंच रहे हैं। यह ठीक है कि इसे कम या खत्म करने के लिए हम राजस्थान के मरुस्थल या ईरान और अफगानिस्तान के पर्यावरण में ज्यादा दखल नहीं दे सकते, लेकिन प्रदूषण के स्थानीय कारणों पर तो लगाम कस ही सकते हैं। स्थानीय धुएं और धूल को कम करने की कोशिश तो हमें वैसे भी करनी चाहिए। दुर्भाग्य से यह भी नहीं हो पा रहा।