By: D.K Chaudhary
इससे विपक्ष के इस आरोप की पुष्टि होती है कि कंपनियों ने नहीं, सरकार ने ही कर्नाटक चुनाव के कारण मूल्यों की बढ़ोतरी रोक रखी थी। गौरतलब है कि ऐसा ही कुछ यूपी विधानसभा चुनाव के दौरान भी दिखा था, जब कच्चे तेल की कीमतें बढ़ने के बावजूद डीजल-पेट्रोल रोजाना एक-दो पैसे सस्ता किया जा रहा था। ईंधन की कीमत जनता के लिए एक पहेली बन गई है। सरकार का दावा है कि तेल की कीमतों के मामले में वह कोई दखल नहीं देती, इस बारे में सारे फैसले ऑयल मार्केटिंग कंपनियां ही करती हैं। जून 2017 से पहले तक तेल की कीमतें हर 15 दिन पर तय होती थीं लेकिन अभी देश के सारे पेट्रोल पंपों पर फ्यूल की कीमतें रोज जारी होती हैं। रुपया-डॉलर अनुपात और अंतरराष्ट्रीय बाजार में क्रूड की कीमतों के आधार पर रोज पेट्रोल और डीजल की कीमतों में बदलाव होता है, लेकिन अगर सब कुछ नियम से ही चलता है तो फिर विधानसभा चुनावों के वक्त ये नियम क्या कहीं आराम करने चले जाते हैं? सच्चाई यह है कि आज भी कंपनियां नहीं, सरकार ही अपनी प्राथमिकताओं के आधार पर ईंधन की कीमतों को नियंत्रित कर रही है। हम सिर्फ अपने पेट्रोल के लिए ही भुगतान नहीं करते, साथ में भारी उत्पाद शुल्क भी चुका रहे हैं।
2014 में एनडीए सरकार के आने के बाद से सरकारी खजाना भरने के लिए 2015 की छमाही में पेट्रोल और डीजल पर उत्पाद शुल्क बढ़ाने का निर्णय लिया गया। उस वक्त ग्लोबल स्तर पर तेल की कीमतों में भारी गिरावट दर्ज की जा रही थी लेकिन जनता को इसका कोई फायदा नहीं मिला। अप्रैल, 2014 में पेट्रोल पर लगने वाला उत्पाद शुल्क 9.80 रुपये प्रति लीटर था, जो 2015-2016 में कई बार बढ़ोत्तरी के बाद अब 21.48 रुपया हो गया है। वहीं डीजल पर अप्रैल, 2014 में एक्साइज ड्यूटी 3.65 प्रति लीटर लगती थी, जो अब 17.33 प्रति लीटर हो गई है। सरकार जो भी कहे, पर लोगों की जेब पर पड़ रही पेट्रोल-डीजल की मार की अनदेखी तो अब न ही करे। तरीका जो भी हो, इनकी कीमतें अब और नहीं बढ़नी चाहिए।