2008 में मनमोहन सिंह सरकार अमेरिका के साथ न्यूक्लियर डील को लेकर विश्वास प्रस्ताव लाई थी और जीत गई थी। इस कसरत का सबसे दिलचस्प पहलू यह है कि जिस मुद्दे पर यह प्रस्ताव लाया गया है, उसी पर सबसे कम बात होने की आशंका है। टीडीपी ने आंध्र प्रदेश को विशेष राज्य का दर्जा देने के मुद्दे पर अविश्वास प्रस्ताव पेश किया है, लेकिन सरकार और ऑपोज़िशन दोनों इसे 2019 के चुनावी प्रचार के रिहर्सल के तौर पर ले रहे हैं। संसद के पिछले सत्र, बजट सत्र का दूसरा हिस्सा अविश्वास प्रस्ताव के मुद्दे पर ही जाया हुआ था, लेकिन इस बार सरकार शुरू में ही मान गई। मोदी सरकार इसे देश के सामने अपनी उपलब्धियां गिनाने के अवसर के रूप में ले रही है। संभव है, इस मौके पर कुछ लोकलुभावन संकेत भी दिए जाएं। लोकसभा का अंकगणित उसके पक्ष में है, लिहाजा वह एक दिन की बहस का मनचाहा इस्तेमाल कर सकती है।
दूसरी तरफ विपक्ष को लगता है कि मीडिया पर सरकार के दबदबे की काट वह संसद में टीवी कैमरों के सामने अपनी बात रखकर कर सकता है। विपक्ष मॉब लिंचिग, बलात्कार की बढ़ती घटनाओं, किसानों की आत्महत्या, एमएसपी, बेरोजगारी और आतंकवाद के मुद्दों पर सरकार को घेरकर उसकी नाकामियां गिनाएगा, लेकिन उसकी सबसे बड़ी कोशिश अपनी एकजुटता दिखाने की होगी, ताकि बीजेपी अगले आम चुनाव में अपनी एकतरफा ताकत न जाहिर कर सके। अविश्वास प्रस्ताव के पीछे विपक्ष का एक मकसद एनडीए के गैर-बीजेपी घटकों की कशमकश सामने लाना भी है। खासकर शिवसेना की ओर से उसको किसी अचंभे का इंतजार रहेगा।
इसके अलावा एआईडीएमके, बीजेडी और टीआरएस जैसे दलों की स्थिति भी स्याह-सफेद में सामने आ सकेगी। इनके कुछ नेता जब-तब मोदी सरकार की आलोचना जरूर करते हैं, लेकिन अविश्वास प्रस्ताव पर मोदी सरकार को लेकर इनका रवैया अगले आम चुनाव तक के लिए पुख्ता माना जाएगा। वैसे, कार्यवाही देखने वालों की नजर काफी कुछ कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी पर भी रहेगी, क्योंकि उनकी बॉडी लैंग्वेज से 2019 के चुनाव में विपक्ष के आत्मविश्वास को लेकर एक अंदाजा लगाया जा सकेगा।